चन्द्रगुप्त : पात्र-परिचय पुरुष-पात्र चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य साम्राज्य का निर्माता चन्द्रगुप्त : मौर्य सम्राट् नन्द : मगध-सम्राट् राक्षस : मगध का अमात्य वररुचि (कात्यायन) : मगध का मन्त्री आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार सिंहरण : मालव गण-मुख्य का कुमार पर्वतेश्वर : पंजाब का राजा (पोरस) सिकन्दर : ग्रीक-विजेता फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप मौर्य-सेनापति […]
1 मन्दाकिनी के तट पर रमणीक भवन में स्कन्द और गणेश अपने-अपने वाहनों पर टहल रहे हैं। नारद भगवान् ने अपनी वीणा को कलह-राग में बजाते-बजाते उस कानन को पवित्र किया, अभिवादन के उपरान्त स्कन्द, गणेश और नारद में वार्ता होने लगी। नारद-(स्कन्द से) आप बुद्धि-स्वामी गणेश के साथ रहते हैं, यह अच्छी बात है, […]
पात्र- परिचय पुरुष-पात्र स्कंदगुप्त–युवराज (विक्रमादित्य) कुमारगुप्त– मगध का सम्राट गोविन्दगुप्त– कुमारगुप्त का भाई पर्णदत्त– मगध का महानायक चक्रपालित– पर्णदत्त का पुत्र बन्धुवर्मा– मालव का राजा भीमवर्मा– उसका भाई मातृगुप्त– काव्यकर्ता (कालिदास) प्रपंचबुद्धि– बौद्ध कापालिक शर्वनाग– अन्तर्वेद का विषयपति कुमारदास (धातुसेन)– सिंहल का राजकुमार पुरगुप्त– कुमारगुप्त का छोटा पुत्र भटार्क– नवीन महाबलाधिकृत पृथ्वीसेन– मंत्री कुमारामात्य खिगिल– […]
पूत-सलिला भागीरथी के तट पर चन्द्रालोक में महाराज चक्रवर्ती अशोक टहल रहे हैं। थोड़ी दूर पर एक युवक खड़ा है। सुधाकर की किरणों के साथ नेत्र-ताराओं को मिलाकर स्थिर दृष्टि से महाराज ने कहा-विजयकेतु, क्या यह बात सच है कि जैन लोगों ने हमारे बौद्ध-धर्माचार्य होने का जनसाधारण में प्रवाद फैलाकर उन्हें हमारे विरुद्ध उत्तेजित […]
आज सात दिन हो गये, पीने को कौन कहे-छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है, सरकार! तुम झूठे हो। अभी तो तुम्हारे कपड़े से महक आ रही है। वह … वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर-कई दिन हुए-अन्धेरे में बोतल उँड़ेलने लगा था। कपड़े पर गिर जाने से नशा भी न आया। […]
दो-तीन रेखाएँ भाल पर, काली पुतलियों के समीप मोटी और काली बरौनियों का घेरा, घनी आपस में मिली रहने वाली भवें और नासा-पुट के नीचे हलकी-हलकी हरियाली उस तापसी के गोरे मुँह पर सबल अभिव्यक्ति की प्रेरणा प्रगट करती थी। यौवन, काषाय से कहीं छिप सकता है? संसार को दु:खपूर्ण समझकर ही तो वह संघ […]
गाँव के बाहर, एक छोटे-से बंजर में कंजरों का दल पड़ा था। उस परिवार में टट्टू, भैंसे और कुत्तों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे। उसका सरदार मैकू, लम्बी-चौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दया-माया उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के भीतर प्रसन्नता की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव […]
कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के […]
मैं ‘संगमहाल’ का कर्मचारी था। उन दिनों मुझे विन्ध्य शैल-माला के एक उजाड़ स्थान में सरकारी काम से जाना पड़ा। भयानक वन-खण्ड के बीच, पहाड़ी से हटकर एक छोटी-सी डाक बँगलिया थी। मैं उसी में ठहरा था। वहीं की एक पहाड़ी में एक प्रकार का रंगीन पत्थर निकला था। मैं उनकी जाँच करने और तब […]