हितोपदेश माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्। कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥ (हितोपदेशे) यों कहकर भाईजी फिर मुझसे बोले,–“ दुलारी, अब तुम अपना बयान मेरे आगे कह जाओ; पर इतना तुम ध्यान रखना कि इस समय जो कुछ तुम कहो, उसे खूब अच्छी तरह सोच-समझ कर कहना।” यों कहकर भाईजी ने अपने जेब […]
सज्जनता “किमत्र-चित्रं यत्सन्तः परानुग्रहतत्पराः। न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥” (कालिदासः) पर, उस बात पर मैं अधिक ध्यान न देने पाई, क्योंकि भाईजी ने अबकी बार जरा बिगड़कर यों कहा, —“बस, बहुत हुआ, एक लड़की को अपने बड़ों के आगे इतना हठ और इतनी ढिठाई कभी न करनी चाहिए, इसलिए अब मैं तुम्हें यह आज्ञा […]
सहायक ताद्वशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोsपि तादृश: । सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता ॥ (नीतिविवेके) थोड़ी ही देर पीछे ग्यारह बजे और जेलर साहब के साथ भाई दयालसिंहजी और बारिस्टर साहब आ पहुँचे। जेलर साहब ने मेरे कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे तीनों उस कोठरी के बाहर खड़े हो गए। इन लोगों को देखकर मैं भी उठकर […]
नई कोठरी नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्ते$पि वशगा, विधिर्वन्द्य: सो$पि प्रतिनियतकर्मैकफलदः । फलं कर्मायत्त यदि किममरै: किं च विधिना, नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति ।। (भतृहरि:) बस, इसी तरह की बातें मैं मन ही मन सोच रही और रो रही थी इतने ही में जेलर साहब ने आकर मुझसे यों कहा,– “बेटी दुलारी, मुझे ऐसा जान […]
अयाचित बन्धु उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे | राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः || (चाणक्य:) अस्तु, अब यह सुनिए कि कुर्सियों पर बैठ जाने पर उन नौजवान बैरिष्टर साहब ने मुझे सिर से पैर तक फिर अच्छी तरह निरख कर यों पूछा,–‘दुलारी तुम्हारा ही नाम है?” मैंने धीरे से कहा,– “जी हां।” वे बोले,—“ […]
आशा का अंकुर अनुकूले सति धातरि भवत्यनिष्टादपीष्टमविलम्बम् । पीत्वा विषमपि शंभुर् मृत्युंजयतामवाप तत्कालम् ॥ (नीतिरत्नावली) अस्तु, जब मैं दूध पी चुकी, तो मैंने क्या देखा कि जेलर साहब दो भले आदमियों के साथ मेरी कोठरी की ओर आ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे एक आदमी दो कुर्सियाँ लिए हुए चला आ रहा है। मेरी […]
घोर विपत्ति! “आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त- मम्बोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छम्॥ जन्मान्तरा S र्जितशुभाSशुभकृन्नराणां, छायेव न त्यजति कर्मफलाSनुबन्धः॥“ (नीतिमंजरी) दुलारी मेरा नाम है और सात-सात खून करने के अपराध में इस समय में जेलखाने में पड़ी-पड़ी सड़ रही हूं। मैं जाति की ब्राह्मणी पर कौन सी ब्राह्मणी हूँ,यह बात अब नहीं कहूँगी। मैं अभी तक […]
इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ […]