अध्याय : 18 मैदान में
डुमराँव का तीन कोस तक फैला हुआ मैदान धू-धू कर रहा है। तीन कोस तक धान की हरियाली बिहारियों की आँखों को आनन्दित कर रही है। अष्टमी के दिन तीसरे पहर को उसी हरियाली के बीच डाँड़ो के ऊपर भयंकर डाकू भोलाराय अकेला जा रहा था। उसने जाते-जाते देखा कि एक बगुला एक गढ़ के किनारे, एक पैर उठाये चुपचाप जल की तरफ ताक रहा है। उसे देखकर भोला हँसा और मन ही मन बोला- अरे जानवर! हम लोग आदमी की देह धरकर भी तेरी ही चाल चलते हैं, तू जो करता है, मैं और हीरासिंह भी वही काम करते हैं, हम लोग आदमी होकर भी जानवर हैं। तू सिर्फ अपना मतलब ढूँढता है और हम भी वही करते हैं। जन्म भर डकैती करके मैं खुद बेहद दुखी हुआ और अनगणित आदमियों को बेहद सताया है, न जाने कितने खून किये हैं, कैसा कुकर्म किया है! मैंने क्यों नहीं समझा कि दूसरे को सुखी करने में ही, परोपकार करने में ही सच्चा सुख है! यों सोचते-सोचते भोलाराय पलास के पेड़ों से घिरे हुए एक पोखरी के पास आ पहुँचा।
पाठकों को याद होगा, इसी तालाब की चौड़ी सीढ़ियों पर पश्चमी की रात को गूजरी से भोला की भेंट हुई थी। भोला ने देखा कि तालाब के किनारे एक काला ब्राहम्ण बैठा माला जप रहा है। इस ब्राहम्ण को भी पाठकों ने एक दिन देखा है। उसका नाम सागर पाँडे है। भोला ने प्रणाम करके उससे पूछा-“क्यों पाँडेजी! कुछ हाथ लगा?”
सागर – “कुछ भी नहीं भैया।”
भोला-“आजकल अब कुछ हाथ नहीं लगेगा, आज अष्टमी है। अब कोई बटोही नहीं मिलेगा। जिसको जहाँ जाना था वह वहाँ पहुँच गया। मेरे साथ चलो, गहरा माल हाथ लगेगा।”
सागर – “कहाँ?”
भोला – “मुंशी हरप्रकाश के मकान पर।”
सागर -“वहाँ सिर्फ दो ही जने?”
भोला-“वहाँ क्या है? तुम सिर्फ मेरे साथ रहना, मैं अकेले सब काम को करूँगा।”
यों बातचीत हो रही थी कि इतने में उनके पीछे कोई चीख उठा। उन्होंने पीछे फिरकर देखा कि एक आदमी एक साँस दौड़ा आ रहा है और दूसरा उसका पीछा कर रहा है।
आगे वाला बूढ़ा था “दुहाई तुम्हारी, मेरी जान बचा” कहकर उसने सागर पाँडे के पैर पकड़ लिये। भोलाराय ने कहा-“डरो मत उठो। तुम कहाँ जाओगे?”
बूढ़ा -“मैं सरेंजा जाऊँगा।”
भोला-“सरेंजा किसके यहाँ?”
बूढ़ा – “हरप्रकाश लाल के यहाँ।”
भोला-“बेखटके चले जाओ। किसकी मजाल है जो तुम्हे छुएगा। हम यहाँ खड़े हैं तुम चले जाओ।”
पीछे बार-बार ताकता हुआ बूढ़ा भरपूर तेजी से चला गया। पीछा करने वाले डाकू ने भोला के पास आकर कहा-“क्यों रायजी! बूढ़े को छोड़ दिया?”
भोला-“उसको मारकर क्या होगा, उसके पास क्या है?”
डाकू -“अरे इसकी टेंट में रूपये हैं। आपने देखा नहीं क्या?”
भोला-“अरे दो चार रूपये के लिए एक आदमी की जान लेना अच्छा है?”
डाकू -“राय साहब! आज आपके मुँह से यह नई बात सुनी!”
भोला -“अब मैं वह काम नहीं करूँगा।”
सागर-“और अभी कहते थे कि हरप्रकाश के घर डाका डालने चलो।”
भोला-“इसी डाके के बाद मेरा प्रण चलेगा। जो प्रण किया है उसे जरूर करूँगा। जीते जी भोलाराय का प्रण कभी नहीं टूटा और टूटेगा भी नहीं।”
डाकू – “आप दो ही जने जाते हैं, और लोग कहाँ हैं?”
भोला – “और कौन? अधिक आदमियों की क्या दरकार है? तू भी मेरे साथ चल।”
तीनो डाकू एक साथ चले। दिन भर आकाश में बादल छाये हुए थे लेकिन वर्षा नहीं हुई। अब एक काला मेघ पश्चिम तरफ फैलकर धीरे धीरे ऊपर जाने लगा और आधे आकाश को घेर लिया। बिजली चमकने और बादल गरजने लगे।
भोला ने कहा – “पाँडेजी! पानी बड़े जोर से आता है। जरा तेजी से चलो।”
सागर – “हाँ भाई, मैदान पार हो जाये तो जानें।”
धीरे-धीरे सारा आकाश काले बादलों से छा गया। बड़े जोरशोर से मूसलाधार वर्षा होने लगी। डाकू फुर्ती के साथ चलकर सरेंजा के पास पहुँच गये।
बहुत सुन्दर