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कहानी-लेखक-पंडित ज्वालादत्त शर्मा

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प्रयाग-विश्वविद्यालय के अंडरग्रेजुएट के लिये डाक्टरी या वकालत के सदृश समय और धन-सापेक्ष व्यवसायों के सिवा नौकरी में नायब तहसीलदारी वा सब-रजिस्ट्रारी के पद ही अधिक आकर्षण रखते हैं; पर उनकी प्राप्ति के लिये विद्या से बढ़कर सिफारिश की जरूरत है। पिता के मित्र सूबेदार नन्हेसिंह से जब मैं मिला, तब उन्होंने दुःख प्रकाश करते हुए कहा कि मैं इसी वर्ष अपने भतीजे की सिफारिश कर चुका हूँ और परिमाण से अधिक सिफारिश करके मैं अपने हाकिम का दिमाग, अधिक भोजन से मेदे की तरह बिगाड़ना नहीं चाहता।

उनकी युक्ति-युक्त बात सुनकर मैंने कहा—ठीक।

खाली समय में उपन्यास पढ़ने का चसका कालेज में ही पड़ चुका था। उन्हीं दिनों अमेरिका के एक पत्र में, जो चुभते हुए उपन्यास लिखने में जवाब नहीं रखता था, पढ़ा-कहानी लिखनेवालों का व्यवसाय आजकल खूब चमक रहा है। जिसकी जैसी योग्यता होती है, वह इस पेशे से उतना ही पैदा कर लेता है। योरप में कहानी-लेखक लाखों रुपया पैदा कर रहे हैं;  और तरह के व्यवसायों में अनेक झंझट है। उनमें धन की आवश्यकता, उपकरण की आवश्यकता, मुनीमों और नौकरों की आवश्यकता और सबसे बढ कर मौके की जगह की आवश्यकता होती है। पर, कहानी लिखनेवालों की मुलायम पेंसिल और व्यवसाय चमक जाने पर फाउन्टेन पेन और कागज के सिवा और किसी बाहरी उपकरण की आवश्यकता नहीं है। उसी लेख में, आगे चलकर, लिखा था कि फ्रांस के एक लेखक के पास आठ-दस क्वाँरी लड़कियाँ क्यों–युवतियाँ—नौकर हैं। वे अपने-अपने समय पर आती हैं और कहानी लिखनेवालों का वह आचार्य उनमें से हर एक को एक कहानी लिखवा देता है। इस तरह आठ-दस कहानियाँ लिखकर यह आठ-दस ‘कहानी कहने वाले’ पत्रों के पेट भरने के साथ-ही-साथ अपनी जेब भरता है।

उस पत्र में यह सब कुछ पढ़कर मैं सोचने लगा कि अब तक मैंने क्या इस ओर ध्यान नहीं दिया। उस समय मेरा मन अनेक तरह के विचारों के सागर में गोते खाने लगा।

अवकाश के समय में पढ़े उपन्यासों की मनोहर छटाएँ अपनी-अपनी भाषा में ‘तथास्तु’ कहने लगीं। मैंने सोचा—घर बैठे का ऐसा अच्छा रोजगार कि जिसमें मूलधन की कुछ भी जरूरत नहीं, मुझे तत्काल शुरू कर देना चाहिए। विक्टर ह्यूगो और रवीन्द्रनाथ का नाम स्मरण करके मैंने इरादा पक्का कर लिया।

उसी लेख में एक पुस्तक का उल्लेख था, जिसे फ्रांस के उसी कहानी लेखक ने कहानी-लेखन-कला पर लिखा था। मैंने उसे मंगाया। उसे पाकर मैंने समझा कि अब मैदान मार लिया। धर्म पुस्तक की तरह मैं उसका अध्ययन करने लगा। उसमें लिखा था कि कहानी लिखने का काम जितना मुश्किल है, उतना ही आसान है। इस मुश्किल को उस चतुर लेखक ने इस तरह आसान किया था। हर आदमी समाज में सबसे मिलता है। सुख-दुख के अवसरों पर सम्मिलित होता है। संसार के उतार-चढ़ाव देखता है, पर समझता कम है। और सच यह है कि समझने की कोशिश नहीं करता है। कहानी लिखने वाले को सबसे मिलना तो पड़ेगा ही, पर साथ-ही-साथ समझना भी पड़ेगा। उसे अपने आँख-कान के साथ दिल का दफ्तर खोल कर चलना पड़ेगा। रास्ते में जहाँ जो मिलेगा, उसे उठाकर ठीक जगह जमा करना पड़ेगा। दृष्टांत के तौर पर उसमें लिखा था—एक कहानी-लेखक ट्राम गाड़ी में जा रहे थे। उन्हीं के पास एक महिला बैठी हुई कोई चिट्ठी पढ़ रही थी। चिट्ठी पढ़ने के भाव और चिट्ठी की लिखावट को देखकर उस दिव्य ज्ञानी कहानी लेखक को मालूम हुआ कि इस जगह कहानी लिखने का कुछ मसाला मिल सकता है। झट उसने उस महिला से परिचय प्राप्त करके उस पर प्रकट कर दिया कि वह एक प्रसिद्ध जासूसी उपन्यास लेखक हैं। जटिल बातों में लोग उससे प्रायः परामर्श लेते हैं। महिला ने उसे घर बुलाया और पति की क्रूरता का वृतांत सुनाकर उससे परामर्श की भिक्षा मांगी। कहानी लेखक ने परामर्श दिया और बहुत सी उपहार सामग्री के साथ वह बढ़िया कहानी का प्लाट घर ले आया। इसी पुस्तक में एक जगह लिखा था कि कहानी लेखक को एकांत स्थानों में प्रायः घूमना चाहिए। ऐसे स्थानों में घूमने से, जहाँ कल्पना शक्ति पर धार चढ़ती है, कभी-कभी घटना के बीज भी, अनायास, मिल जाते हैं। इसके दृष्टांत  में पुस्तक लेखक ने लिखा था कि अमेरिका का एक कहानी लेखक किसी नदी के एकांत तट पर घूम रहा था कि उसे दो प्रेमियों के पत्र व्यवहार का एक पुलिंदा मिल गया। उसकी सहायता से उसने एक नहीं अनेक कहानियाँ लिख डालीं।

इस पुस्तक में यह भी लिखा था कि संसार में घटनाओं की कमी नहीं। दैनिक पत्र घटनाओं के बोझ को सिर पर रखकर,  प्रातःकाल ही, हर आदमी के स्थान पर थोड़े से खर्च में, पहुँच जाते हैं। चरित्रों की कमी नहीं, हर घर में, हर समाज में, अच्छे बुरे, ऊँचे नीचे और मिश्रित आचरण वाले मनुष्य मौजूद हैं। वर्णनीय विषयों का भी अकाल नहीं। सब चीजें यथेष्ट परिमाण में मौजूद हैं। बस, लेखक की प्रतिभा उन सामयिक घटनाओं और सामने चलते-फिरते चरित्रों को मथकर चमत्कार-रूप मक्खन निकाल लेती है।

मैंने सोचा– घटनाओं के काल्पनिक डेरी फार्म का चमत्कार मक्खन खूब ऊँचे दर पर बेचूँगा। उस समय घर की गरीबी को काफूर होते बहुत देर न लगेगी।

उसी दिन से मैंने आँख-कान खोलकर घूमना शुरू कर दिया। घर-बाहर, बाजार, हाट, नदी-तट और रेलवे प्लेटफॉर्म पर मैं प्रायः इसी उद्देश्य से घुमा करता था। कभी गाँव की कच्ची सड़क पर और कभी श्मशान में भी मैं चक्कर लगाया करता था। इन स्थानों पर घूमते समय मार्के की कोई बात दिखाई पड़ती, तो मैं उसे अपनी नोटबुक में टाँक लेता था। कहीं अधिक मोटा आदमी मिल गया तो उसका शाब्दिक फोटो खींच लिया। कहीं कोई झगड़ा हो गया, तो उसकी प्रश्नोत्तरी लिख ली। किसी ने फबता हुआ कोई फिकरा कह दिया कि मैंने उड़ा लिया ।

महीने बीत गए; पर मानव-कुल के निरीक्षण का मेरा काम वैसा ही चलता रहा। एक दिन बूढ़ी माता ने हाथ का खड़ुआ मेरे सामने रखकर कहा–बेटा, इसे बाजार से बेच ला। घर में अन्न नहीं है। माता का चेहरा जरा भी उदासीन न था। उसने कई बार मुझसे नौकरी करने के लिये कहा था; किंतु मैंने उसे समझा दिया कि मैं एक ऐसे ही काम के लिये तैयारी कर रहा हूँ। उस दिन से माता शांति से घर की चीजें बेचकर मुझे खिलाती रही। कभी मेरे काम में विघ्न न डाला। मेरी व्यस्तता को देख-.कर बह बहुत प्रसन्न मालूम होती थी ।

मैं प्रातःकाल होते ही घर से निकल जाता था। 10 बजे लौटता था। भोजनोपरांत संसार के प्रसिद्ध उपन्यास-लेखकों के अँग्रेज़ी अनुवाद पढ़ता थी। फिर शाम को ‘उपादान-संग्रह’ के लिये बाहर निकलता था। रात को घर लौटकर दिन में जो कुछ देखता या सुनता था, अपनी कापी में लिख लेता था। उस दिन माता के धैर्य पर मैंने एक छोटा सा निबंध लिखा। पुस्तक-लेखक ने लिखा था कि कहानी-लेखक को पहले निबंध लिखने का अभ्यास करना चाहिये। जो किसी घटना का जैसे का तैसा हाल और किसी विषय पर युक्तियुक्त निबंध लिख सकता है, वह समय पाकर अच्छा कहानी-लेखक हो सकता है।

मेरे मकान के पास एक डाक्टर रहते थे। वे पुराने हो गए थे, इसलिये अपनी जंग लगी विद्या की छुरी को गरीबों की गर्दन पर तेज किया करते थे। उन्होंने मुझसे एक दिन पूछा—“विश्व बाबू, देखता हूँ, अब तुम्हारा स्वास्थ्य बहुत अच्छा  है। रोज घूमने से तुम्हारा शरीर खूब पुष्ट हो गया है। फिर वे बड़ी निराशा-भरी दृष्टि से मुझे देखने लगे, मानो अजीर्ण रोगी मैं–इतना सस्ता–उनके हाथ से निकल गया! मैं यदि कहानी लिखने की तैयारी न करता होता तो उस बूढ़े डाक्टर की कोटरलीन आँखों को छेदकर उसके दिल तक की खबर न लाता। उसका धन्यवाद करके मैंने मन में कहा— ठहर जा, आज तेरे ही ऊपर अपने खाते में एक नोट जड़ूँगा, यदि कभी सुन लेगा तो सिर पीट डालेगा।

दूसरे दिन कहारी ने अपना महीना माँगा। मैं घर में था, इसलिये माता ने धीरे से उसे कल लेने के लिये कहा था। वह न मानी, चिल्लाने लगी। मैंने मन में कहा कि यदि वह मूर्ख कहारी मेरे वास्तविक रूप को पहचानती होती तो इस तरह झगड़ा न करती। अच्छा, आज इसकी कर्कशता का ही चित्र खींचूंगा। झगड़ ले और खूब झगड़ ले। मैं भी तेरा श्राद्ध करने में कुछ कसर न छोडूंगा। वह बक-बक करती हुई चली गई। माँ को उस झगड़े से बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने धीरे से पूछा—बेटा, अब कब तक तू कमाने लगेगा?

माँ की बात से मेरी निद्रा टूट गई। मैंने सोचा, इस तरह काम नहीं चलेगा। जो कुछ लिख लिया है, अब उसे बाजार में रखना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि यह संपत्ति अमूल्य है- “पर खरीदार की, देखें तो नजर कितनी है।”

दूसरे दिन शहर के दो-एक सम्पादकों से मैं मिला। मैंने उनसे अपनी रुचि का प्रकाशन किया। वे सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे कि आजकल साहित्याभिरुचि का पैदा होना बहुत ही कठिन है। आपकी प्रशंसा करते हैं कि ऐसे समय में आप साहित्य की श्रीवृद्धि करने के लिये अपने समय का इतना अच्छा उपयोग कर रहे हैं। फिर मैंने अपनी पुस्तक में से कुछ सुनाया। उसको सनकर वे बड़े सहज भाव सें मेरी चरित्र-विश्लेषण-शक्ति की प्रशंसा करने लगे। अंत में मैंने जब पुरस्कार का विषय उठाया तब तो उनके मुँह बेतरह बिगड़ गए। धूप खाये आम की तरह वे पिलपिला गए और कहने लगे—”महाशय, हिन्दी में पुरस्कार का नाम न लीजिए। ‘नेकी कर कुएँ में डाल’ की बात है।  मैंने कहा—“तो साहित्य-सेवा से मैं पेट नहीं भर सकता?” उन्होंने कहा- “हाँ, अभी कुछ दिन नहीं। हमें ही देखिए, क्या मिलता है ! किसी तरह पत्र चला रहे हैं।”

मैं वहाँ से चला आया। घर आकर फिर पुस्तक को पढ़ने लगा। उसमें लिखा था कि नये कहानी-लेखकों को ऐसे पत्र-संपादकों से बचना चाहिये जो पत्र मालिक भी हों। वे कैसा ही सड़ियल लेख हो, छाप देते हैं, यदि मुफ्त मिलता है। दाम देकर लेख लिखाने की हिम्मत उनमें कम होती है। वे लोग अपना मतलब सिद्ध करने के लिये लेखक को दबाये रहते हैं। उसकी श्रेष्ठ रचना को भी साधारण बताते रहते हैं। कहीं असाधारण कहते ही लेखक के पंख न निकल आवें।

मैंने कहा–ठीक। फिर मैं दूने उत्साह से काम करने लगा। मैंने कहा.. माल तैयार होने पर ग्राहक जुट ही जाएँगे। उस दिन मैं एक तालाब के पास बैठा शरत्-काल के लुभावने सायंकाल पर एक निबंध लिखने का अभ्यास कर रहा था। पास ही एक गोरा जल-मुर्गाबियों का शिकार खेल रहा था। वैसे स्निग्ध और शांत समय में उसका वह तांडव-नृत्य मुझे बहुत ही बुरा मालूम होता था।

उसने एक मुर्गाबी पर गोली चलाई। मुर्गाबी लोट गई। वह उसे लेने के लिये तालाब में बढ़ा कि एक साथ गड़प। निस्सन्देह वह डूब रहा था। उसने मुझे पुकारा। मैं तत्काल दौड़कर उसके पास पहुँचा। मेरी धोती के छोर को पकड़कर वह बाहर निकल आया। उसने मेरा धन्यवाद किया और पूछा—बाबू , तुम कुछ चाहता है?

मैंने कहा—साहब, प्रकृति के ऐसे मधुर समय में आप हिंसा-वृत्ति को चरितार्थ न करके यदि प्रकृति का निरीक्षण किया करे तो अच्छा है। मैं आपसे यही चाहता हूँ और कुछ नहीं। सूर्यास्त की छटा को देखिए, तालाब के विजन दृश्य को देखिए, दूर तक फैले हुए मैदान को देखिए। इस समय ऐसा मालूम होता है कि मानो प्रकृति सब ओर से मन हटाकर अपना सौंदर्य-साधन कर रही है और आप उसके हलके आभूषणों पर गोली चलाकर उसका बना-बनाया काम बिगाड़ रहे हैं। साहब ने समझा था, मैं उससे कुछ रुपया या कोई नौकरी माँगूँगा। इसलिये मेरी बातें—और निश्चय ही निबंध में पहले ही लिखी जा चुकी बातें— सुनकर वह चकित हो गया। उसने मुस्कराते हुए कहा—बाबू, मालूम होता है, तुम कवि हो। मैंने कहा.–हाँ साहब, एक तरह का।

उसने कहा—किस तरह का?

मैंने कहा–गद्य-कवि। बात यह है कि मैं कहानी-लेखक बनने की धुन में हूँ। उसमें गद्य-कविता करनी होती है—साहब।

मेरी बात सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा–कहानी-लेखक बनने की धुन कैसी?

मैंने उसे अपना सब वृत्तांत सुनाया। साहब खूब सहृदय था। बहुत से उपन्यासों को चाटे बैठा था। उस पुस्तक की बात सुनकर वह हो-हो! हो! करके हँसने लगा। उसने कहा—बाबू, उस पुस्तक में लिखी बातों पर चलकर तुम कहानी-लेखक बनना चाहते हो। ईश्वर के लिये इस खब्त को छोड़ दो। क्यों समय नष्ट करते हो! वह भी तो एक तरह का उपन्यास है।

मैंने कहा–नहीं महाशय, वह उपन्यास नहीं है। वह तो उपन्यास लिखने की कला पर एक प्रकरण-ग्रंथ है।

उसने हँस दिया। फिर अपनी जेब से नाम का कार्ड निकालकर मुझे देते हुए उसने कहा—तुम कृपा करके मेरे स्थान पर आना, मैं तुमको वैसी अन्य पुस्तकें भी दिखा दूँगा। अच्छा, धन्यवाद बाबू -यह कहकर वह, घोड़े पर चढ़कर, चल दिया। मैंने कार्ड को पढ़ा। उस पर छपा था—

जे० रीड, ( आई० सी० एस० )

कलक्टर और मजिस्ट्रेट ।

अपने शहर के मजिस्ट्रेट की सहृदयता को और उससे भी बढ़कर सरलता को देखकर मैं मुग्ध हो गया ।

दूसरे दिन मैं उनके बँगले पर गया। बड़ी अच्छी तरह मिले। बहुत देर तक बातचीत करते रहे। अपने पुस्तकालय की सैर कराई। अन्त में कहानी लेखक बनाने के खब्त को छोड़ने का फिर परामर्श दिया। मैंने अपनी सम्मति प्रकट की। उन्होंने उसी समय एक कागज लिखकर मेरे हाथ में दिया और कहा–कल से तुम नौकर हुए। ठीक समय पर कचहरी में आओ। मैं सलाम करके चला आया।

निश्चय ही साहब ने मुझे एक साथ 50) मासिक की पेशकारी दे दी। जब माता ने यह समाचार सुना, उनकी प्रसन्नता के बाँध टूट गए। हाँ, किस बुरी तरह वे घर का काम चलाती थीं और मैं कहानी-लेखक बनने की धुन में उनकी दुर्दशा का अनुभव तक न करता था। उन्होंने मेरी पीठ पर प्रेम का हाथ फेरते हुए कहा—‘बेटा, तेरी मिहनत सफल हुई

उन्हें आज तक यही विश्वास है कि मैं उन दिनों नौकरी के लिये ही प्राण पण से उद्योग कर रहा था।

X X X X X X X X X X X X

जिस भाग्य-भगवान् की अनुकूलता से रीड साहब कलक्टरी से तरक्की पाते हुए छोटे लाट हो गए, उसी की मन्द-मुस्कान और रीड साहब की सहायता से मैं भी कुछ वर्षों में डिप्टी-कलक्टर हो गया।

उन दिनों हमारे जिले में लाटसाहब पधारे थे। मजिस्ट्रेट की कोठी पर सबके सामने हँसते हुए उन्होंने मुझसे पूछा–विश्वनाथ, कहानी लिखने का खब्त अभी छूटा या नहीं?

मैंने नम्रता दिखाते हुए, कहा- हुजूर, आपकी कृपा से मेरा जीवन स्वयं एक मनोहर कहानी बन गया है।

साहब ने. तत्काल कहा—ओ यस!

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