सबसे पहले भाषा शैली पर,जिसे लेकर काफी हल्ला भी हो रहा है इस पर यह बात लेखक को पनाह देती है कि ‘लेखक अपने आपको शहर कहता है, और शहर उसी जबान में किस्सा सुनाता है, जो उसके लोगों ने उसे सिखायी है.’
पाठक इस कथा के द्वारा बोकारो शहर से भी परिचित हो सकते हैं जो कि ‘आदिवासियों को विस्थापित करके बना था ,इसलिए उनकी आह लिए बसा था और शहर के बनने से, किसान प्रधान देश के किसान भी लोहा उगाना सीख गए थे.’
लेखक की तारीफ तो केवल इसलिए भी बनती है कि काफी सरल कहानी होने के बावजूद पाठक प्रेम कहानी में,खासकर नायिका मनु के पात्र में,थोड़े या ज्यादा ही सही, डूबने तो लग ही जाते हैं.
आप मनुवाद के प्रबल विरोधी हो, फिर भी मनु को याद रखेंगे.
कथा के प्रवाह के दौरान अध्यायों को दार्शनिकता के छौंक के साथ समाप्त किया गया है. बहुत सारे याद भी रह जाते हैं, और काफी समय तक याद रहने चाहिए .
“अदला-बदली पत्रोँ की ही नहीं, पीड़ाओं की भी होती है.”
“लड़की जब अपने सपनों के साथ निकलती है तो सबसे ज्यादा सुरक्षा अपने सपनों की ही करती है.”
“राह भर ही नहीं, रात भर मुस्कराती रही.”
आज सोशल मीडिया के द्वारा फैलाई जाने वाली अफवाहों से सरकारें भी परेशान हैं,वहां उपन्यास का एक संवाद इसकी गंभीरता को बखूबी बयान करता है—
“अफ़वाह की सबसे विनाशकारी बात यह होती है कि यह नसों में लहू की जगह नफ़रत दौड़ाती है.”
एक पुरानी सूक्ति के एक अंश को लेखक ने अपने हिसाब से संशोधित भी कर लिया है, जैसे की नारी का चरित्र और पुरुष का भाग्य को तो देवता भी नहीं समझ पाते हैं. लेखक कहता है—
“दुनिया का समस्त ज्ञान व्यर्थ है, यदि स्त्री के मन को नहीं पढ़ पाता.“
अध्यायों के शीर्षकों के द्वारा प्रेम कहानी का अहसास देने की कोशिश की गई है, किंतु अंत तक पहुंचते-पहुंचते प्रेम में घुसपैठ कर गए दर्द का अहसास भी इन शीर्षकों से छलकने लगता है, यह एक अच्छा चिंतन रहा.
प्रेम कहानियों में कुछ चीजें आज भी मिस्र की ममियों कि तरह ही,बदली नहीं हैं,जैसे कि
“प्रेम की किस्मत में आज भी सीढ़ियां नहीं होती, लिफ्ट नहीं होती, एस्केलेटर नहीं होते, आज भी दरिया, वो भी आग वालों से ही गुज़ारना पड़ता है .”
लेखक ने शायद अपनी पुरानी यादों को भी कहानी में खूब घोला है. रानू, राजहंस जैसे पाकेट बुक्स के लेखकों के उपन्यासों की झलक, कभी बसों में मिलने वाली किताबों (जिसमें किताब को उल्टा सीधा करने पर एक तरफ औरत और दूसरी तरफ आदमी या अकबर या बीरबल के चेहरे नजर आने लगते थे) में पाए जाने वाले सवालों का उपयोग नायिका के द्वारा ट्यूशन के दौरान किए गए वार्तालाप में हैं. सिविल प्रवेश की तैयारी करने वाले प्रतियोगी “गु खा तसले में” वाक्य को याद रख कर दिल्ली की सल्तनत पर काबिज रह चुके वंशों को याद रख पाता था, यहां भी ऐसा ही कुछ (नीटा काटी है अक्षय को , मेडिसिन लाओ) बीमारियों को याद रखने के संदर्भ में हैं.
कुछ दृश्य फिल्मी प्रस्तुति की तरह के हैं.
नायिका के द्वारा स्नान के लिए किराएदार के गुसलखाने में चले जाना,वहां शैम्पू के बोतल में शराब का रखा जाना (बिल्कुल हजम नहीं हुआ,हमारे भी बहुत कुकर्मों दोस्त रहे हैं, किंतु सभी ने ऐसी संभावना से इंकार ही किया), गुसलखाने में नायक का भी प्रवेश कर जाना (राकेश रोशन की कोई पिक्चर थी,अनिल कपूर और किमी काटकर वाली). ट्यूशन वाले प्रसंग धारावाहिक बुनियाद में आलोकनाथ और अनीता कंवर की यादें ताजा कर जाते हैं. पिक्चर के टिकट नायक से ले लेना आदि.
कुछ प्रसंगों में लेखक का डर भी छलकता है, या यह शायद आज की हकीकत भी है. अभी अंग्रेजी के एक नामी गिरामी ( केवल बिकने के आधार पर) लेखक के ताज़ा तरीन उपन्यास में कश्मीर का जिक्र था, कश्मीर की कुछ समस्याओं का जिक्र तो था, किंतु कश्मीरियों के अंदर धर्म के कारण पनपे आतंकवाद का जिक्र या कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन के बारे में चर्चा से परहेज रखा गया.
यहां भी आतंकवादियों को खाड़कू लिखा गया है. आतंकवादियों के मंदिर में कब्जे से किसी परेशानी का जिक्र नहीं है. इस बात का जिक्र भी नहीं है कि स्वर्ग मंदिर में एक पुलिस अधिकारी (अटवाल) को मंदिर में पनाह पाए, जबरदस्ती कब्जा कर बैठे ,आतंकवादियों ने गोली मार दी थी और उसकी लाश मंदिर में ही घंटों पड़ी रही थी. मंदिर में पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की बुजदिली से हत्या और उसकी लाश के बेकद्री से वहां पड़े रहने से किसी को कोई परेशानी या इस तरह का कहीं कोई जिक्र नहीं. बस से उतार कर लोगों (गैर सिक्खों )को मारा दिया जाता था , उन मरने वालों की भी प्रेम कहानियां रहीं होंगी; प्रेमी, पिता, भाई, बेटे के रूप में, किन्तु लेखक उनके लिए कुछ भी सोच नहीं पाया, या हौसला ही दगा दे गया.
उपन्यास का अंत नयनों को द्रवित कर जाता है. आशा-निराशा दोनों को आपके मन में बनाए रखता है.
अगर आप पुराने पढ़ने वाले है, तो इस तरह की कहानियों का अंत पहले ही शायद भांपने लगते हैं. हर तरह के समापन के लिए मन अपने आप को तैयार भी करने लग जाता है.
तथाकथित नयी पीढ़ी, जिसके लिए यह ज्ञान, हर एक लेखक, नये पुराने, सभी को थोक के भाव दिया जा रहा है कि इनको ही आकर्षित करके ही आप बेस्ट सैलिंग (केवल) ऑथर बन पाओगे. केवल व्यावसायिक हितों के चलते लेखक के इर्दगिर्द रहने वाली इस पीढ़ी को , चौरासी में काफी कुछ मिल सकता है,जैसे कि
“आजकल की पीढ़ी को छतों पर इश्क के पनपने का अहसास भी नहीं है”
“कभी चिट्ठियां ही प्रेमियों की प्राण वायु होती थी, ईमेल, व्हाट्सएप नहीं.”
उपन्यास को जरूर पढ़े, किंतु इसलिए नहीं कि बेस्टसेलर है, या कहलाया जा रहा है, बल्कि एक बहुत छोटी सी कहानी को उपन्यास का रूप दे दिया गया है, और प्रस्तुति ठीकठाक है.
छोटी सी कहानी से, बारिशों की पानी से
सारी वादी भर गयी
ना जाने क्यों , दिल भर गया
ना जाने क्यों , आंख भर गयी
सत्यजी से भविष्य में उम्मीदें तो रहेंगी.
पुनश्चः- हिंदी में लेखकों की एक छोटी-मोटी युवा भीड़, जो कि फेसबुक पर थोड़े बहुत लेखन के आधार पर खुद को लेखक समझने लगी है और अभिव्यक्त करने में आक्रामक भी है, जब किसी लेखक को घेर कर बैठ जाती है और अपनी अभिव्यक्ति को लेखक के कानों के आसपास बार-बार दोहराने लग जाती है (जिसके पीछे उसके अपने भी लेखन के सपनों को साकार करने के मंसूबे हैं), तो उस लेखक के लिए यह गहरी चिंता का विषय होना चाहिए.