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विष के दांत – नलिन विलोचन शर्मा

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सेन साहब की नई मोटरकार बँगले के सामने बरसाती में खड़ी है—काली चमकती हुई, स्ट्रीमल इंड; जैसे कोयल घोंसले में कि कब उड़ जाए. सेन साहब को इस कार पर नाज है — बिल्कुल नई मॉडल, साढ़े सात हजार में आई है. काला रंग, चमक ऐसी कि अपना मुंह देख लो. कहीं पर एक धब्बा दिख जाए तो क्लीनर और शोफ़र की शामत ही समझो. मेम साहब की सख्त ताकीद है कि खोखा-खोखी गाड़ी के पास फटकने न पाएँ.

          लडकियाँ तो पाँचों बड़ी सुशील हैं, पाँच-पाँच ठहरी और सो भी लडकियाँ, तहजीब और तमीज की तो जीती-जागती मूरत ही हैं. मिस्टर और मिसेज सेन ने उन्हें क्या करना है, यह सिखाया हो या नहीं, क्या-क्या नहीं करना चाहिए, इसकी उन्हें ऐसी तालीम दी है कि बस. लडकियाँ क्या हैं, कठपुतलियाँ हैं और उनके माता-पिता को इस बात का गर्व है. वे कभी किसी चीज़ को तोड़ती फोड़ती नहीं. वे दौड़ती हैं, और खेलती भी हैं, लेकिन सिर्फ शाम के वक्त, और चूँकि उन्हें सिखाया गया है कि ये बातें उनकी सेहत के लिए ज़रूरी हैं. वे ऐसी मुस्कराहट अपने होठों पर ला सकती हैं कि सोसायटी की तारिकाएँ भी उनसे कुछ सीखना चाहें तो सीख लें, पर उन्हें खिलखिलाकर किलकारी मारते किसी ने नहीं सुना. सेन परिवार के मुलाकाती रश्क के साथ अपने शरारती बच्चों से खीझकर कहते हैं –“एक तुमलोग हो, और मिसेज सेन की लडकियाँ हैं. अबे फूल का गमला तोड़ने के लिए बना है? तुम लोगों के मारे घर में कुछ भी तो नहीं रह सकता.”

       सो, जहाँ तक सेन परिवार की लड़कियों का सवाल है, उनसे मोटर की चमक-दमक को कोई ख़ास खतरा नहीं था. लेकिन खोखा भी तो है. खोखा जो एक ही है, सबसे छोटा है. खोखा नाउम्मीद बुढ़ापे की आँखों का तारा है—यह नहीं कि मिसेज सेन अपना और बुढ़ापे का कोई ताल्लुक किसी हालत में मानने को तैयार हों और सेन साहब तो सचमुच बूढ़े नहीं लगते. लेकिन मानने लगने की बात छोड़िए. हकीकत तो यह है कि खोखा का आविर्भाव तब जाकर हुआ था, जब उसकी कोई उम्मीद दोनों को बाकी नहीं रह गई थी. खोखा जीवन के नियम का अपवाद था और यह अस्वाभाविक नहीं था कि वह घर के नियमों का भी अपवाद हो. इस तरह मोटर को कोई खतरा हो सकता था तो खोखा से ही.

        बात ऐसी थी कि सीमा, रजनी, आलो, शेफाली, आरती—पाँचों हुईं तो…… उनके लिए घर में अलग नियम थे,दूसरी तरह की शिक्षा थी, और खोखा के लिए अलग, दूसरी. कहने के लिए तो सेनों का कहना था कि खोखा आखिर अपने बाप का बेटा ठहरा, उसे तो इंजीनियर होना है, अभी से उसमें इसके लक्षण दिखाई पड़ते थे, इसलिए ट्रेनिंग भी उसे वैसी ही दी जा रही थी. बात यह है कि खोखा के दुर्ललित स्वभाव के अनुसार ही सेनों ने सिद्धान्तों को भी बदल लिया था. अक्सर ऐसा होता है कि सेन परिवार के दोस्त आते हैं, भड़कीले ड्राइंग रूम में बैठते हैं और बातचीत के लिए विषय का अभाव होने पर चर्चा निकल पड़ती है कि किसका लड़का क्या करेगा. तब सेन साहब बड़ी मौलिकता और दूरंदेशी के साथ फरमाते हैं कि वह तो अपने लड़के को अपने ढंग से ट्रेंड करेंगे, करेंगे क्या, कर रहे हैं. आजकल की पढ़ाई-लिखाई तो फिजूल है. वह तो उसे अपनी तरह बिजनेसमैन, इंजीनियर बनाना चाहते हैं. “अब देखिए न”, सेन साहब कहते हैं, “खोखा पाँच साल का हो रहा है. लोग कहते हैं, उसे किंडरगार्टन स्कूल में भेज दो, लेकिन मैंने अभी यही इंतजाम किया है कि कारखाने का बढ़ई मिस्त्री दो-एक घंटे के लिए आकर उसके साथ कुछ ठोक-पीट किया करे. इससे बच्चे की उँगलियाँ अभी से औजारों से वाकिफ़ हो जाएँगी. हिन्दुस्तानी लोग यही नहीं समझते.”

        एक दिन का वाकया है कि  ड्राइंग रूम में सेन साहब के कुछ दोस्त बैठे गपशप कर रहे थे. उनमें एक साधारण हैसियत के अखबारनवीस थे और सेनों के दूर के रिश्तेदार भी होते थे. साथ में उनका लड़का भी था, जो था तो खोखा से भी छोटा, पर बड़ा समझदार और होनहार मालूम पड़ता है. किसी ने उसकी कोई हरकत देखकर उसकी कुछ तारीफ़ कर दी और उन साहब से पूछा कि बच्चा स्कूल तो जाता ही होगा? इससे पहले कि पत्रकार महोदय कुछ जवाब देते, सेन साहब ने शुरू किया – मैं तो खोखा को इंजीनियर बनाने जा रहा हूँ, और वे ही बातें दुहराकर वे थकते नही थे. पत्रकार महोदय चुप मुस्कराते रहे. जब उनसे फिर पूछा गया कि अपने बच्चे के विषय में उनका क्या ख्याल है, तब उन्होंने कहा—“मैं चाहता हूँ कि वह जेंटिलमैन ज़रूर बने और जो कुछ बने, उसका काम है, उसे पूरी आजादी रहेगी.” सेन साहब इस उत्तर के शिष्ट और प्रच्छन्न व्यंग्य पर ऐंठ कर रह गए.

        तभी बाहर शोर-गुल सुनकर सेन साहब उठने लगे, तो उनके मित्रों ने भी जाने की इच्छा प्रकट की और उन्हीं के साथ बाहर आए. बाहर सेन साहब का शोफर एक औरत से उलझ रहा था. औरत के पास एक पाँच-छह साल का बच्चा खड़ा था, जिसे वह रोकने की कोशिश कर रही थी, क्योंकि बच्चा बार-बार शोफर की ओर झपटता था.

        सेन साहब को देखकर औरत सहम गई. शोफर ने साहब की ओर बढ़कर अदब के साथ कहा, “देखिए साहब, मदन गाड़ी को छू रहा था, गाड़ी गंदी हो जाती, मैंने मना किया तो लगा कहने –‘जा जा’ तो मैंने उसे पकड़कर अलग कर दिया, इस पर मुझको मारने दौड़ा. अब उसकी माँ भी आकर खामखाह मुझसे उलझ रही है.” मदन की माँ कुछ कहना चाहती थी, लेकिन सेन साहब के सटे होठों को देखकर चुप रह गई. सेन साहब ने बड़े संयत लेकिन कठोर स्वर में कहा- मदन की माँ, मदन को ले जाओ और देखना, वह फिर ऐसी हरकत न करे. मदन की माँ अपने बच्चे के बाएँ घुटने से निकलते हुए खून को पोंछती हुई चली गई. ड्राईवर ने शायद धकेल दिया था और वह गिर पड़ा था. लेकिन एक मामूली किरानी के बेटे को सेन साहब के ड्राईवर ने धक्का दे दिया और उसे चोट आ गई, तो आखिर ऐसी कौन-सी बात हो गई !

        ठीक इसी वक्त मोटर के पीछे खट-खट की आवाज़ सुनकर सेन साहब लपके, शोफर भी दौड़ा. और लोग सीढ़ियों से उतरकर अपनी-अपनी गाड़ियों की ओर चले. सभी ने देखा, सेन साहब खोखा को गोद में लेकर उसे हल्की मुस्कुराहट के साथ डांट रहे हैं और मोटर की पिछली बत्ती का लाल शीशा चकनाचूर हो गया है. सेन साहब ने मित्रों को संबोधित करते हुए कहा, “देखा आपलोगों ने? बड़ा शरारती हो गया काशू. मोटर के पीछे हरदम पड़ा रहता है. उसके कलपुर्जों में इसको अभी से इतनी दिलचस्पी है कि क्या बताऊँ !…….शायद देखना चाह रहा था कि आखिर इस बत्ती के अंदर है क्या..?”

        सेन साहब खोखा को जमीन पर रखकर अपने दोस्तों के साथ उनकी कार की ओर चले. उन्होंने अपने मित्रों की भाव-भंगिमा देखी नहीं, देखते भी तो कुछ समझ पाते, इसमें शक ही था. मिस्टर सिंह अपनी कार के पास पहुँचे और सेन साहब को नमस्कार कर दरवाजा खोलने के लिए बढ़े और फिर रुक गए. उनकी निगाह अचानक ही अगले चक्के पर गई थी. उन्होंने नज़दीक जाकर देखा और परेशानी की हालत में खड़े हो गए. टायर बिलकुल बैठ गया था. शायद ‘पंक्चर’ हो गया था. सेन साहब भी आगे बढ़ आए और कुछ झिझकते हुए बोले, “कहीं ऐसा तो नहीं है कि काशू ने हवा निकाल दी हो. ड्राईवर, जरा दूसरे चक्कों को भी देख लो और पंप ले आकर हवा भर दो ; और हाँ, कुर्सियां लॉन में लगवा दो , तब तक हम यहाँ बैठते हैं.”

          ड्राईवर ने एक कार का चक्का लगाकर सूचना दी कि दूसरी ओर के पिछले चक्के की भी हवा निकाली हुई थी. ‘काम तो काशू बाबू का ही मालूम पड़ता है. इधर ही खेल रहे थे.’ शोफर ने बताया और पंप लाने चला गया.

         मुकर्जी साहब की गाड़ी सकुशल थी और वह अपने और पत्रकार महोदय के परिवार के साथ चलते बने. सेन साहब और मिस्टर सिंह लॉन की कुर्सियों पर बैठकर बातें करते रहे. बातों के सिलसिले में ही सेन साहब ने बतलाया कि काशू ने इधर चक्कों से हवा निकालने की हिकमत जान ली थी और मौका मिलते ही शरारत कर गुजरता था. उनका अपना ख्याल था, उसकी इन हरकतों को देखकर तो यह साफ़ मालूम होता था कि इंजीनियरिंग में उसकी दिलचस्पी है. इसी तरह की दूसरी बेमतलब की बातें होती रहीं, जब तक कि चक्कों में पंप नहीं हो गया और मिस्टर सिंह रुखसत नहीं हो गए.

       सेन साहब अंदर लौटे तो बेयरा को, मदन के पिता गिरधरलाल को, जो उनकी फैक्ट्री में किरानी था और अहाते के एक कोने में ……..आउटहाउस में रहता था, बुला लाने का हुक्म दिया. गिरधरलाल आया और सेन साहब के सामने सिर झुकाकर खड़ा हो गया, जैसे खून के जुर्म में कैदी जज के सामने खड़ा हो. सेन साहब ने ठंढी बेलौस आवाज में कहना शुरू किया, “देखो गिरधर, मदन आजकल बहुत शोख हो गया है. मैं तुम्हारी और उसकी भलाई चाहता हूँ. गाड़ी को गन्दा किया वह अलग, मना करने पर ड्राईवर को मारने दौड़ा और मेरे सामने भी डरने के बदले उसकी ओर झपटता रहा. ऐसे ही लड़के आगे चलकर गुंडे, चोर और डाकू बनते हैं.” गिरधरलाल कभी-कभी ‘जी’ कह देता था. सेन साहब का भाषण जारी था, “उनकी हालत क्या होती है, तुम जानते ही हो. उसे संभालने की कोशिश करो. फिर ऐसी बात हुई, तो अच्छा नहीं होगा. तुम जा सकते हो.”

      उस रात गिरधरलाल के क्वार्टर से आते हुए मदन के चीत्कार से सेनों का आरामदेह शयनागार गूँज गया. आराम में खलल पड़ने से कुछ झुंझलाकर पिता सेन ने धर्मपत्नी से बड़ी समझदारी की बात कही, “गिरधर खुद समझदार आदमी है. उसकी बीवी ने ही लड़के को बिगाड़ दिया है. मदन की यही दवा है. मेरी तो तबीयत हुई थी कि कमबख्त की खाल उधेड़ दूँ. गिरधर ने ऐसी ही कड़ाई जारी रखी तो शायद ठीक हो जाए. ‘स्पेयर द रॉड एंड स्पॉइल द चाइल्ड’.”

      माता सेन की नींद उचट गई थी. उन्हें मदन की कातर चिल्लाहट से ज्यादा अपने पति की बकबक पर खीझ आ रही थी, लेकिन उन्होंने भी अपनी खीझ मदन पर ही उतारी, “कमबख्त कैसा कौए की तरह चिल्ला रहा है ! भिखमंगा कहीं का ! खोखा की बराबरी करता फिरता है.”

       मदन का आर्त्त रुदन रुक गया था. खैरियत थी, उसकी सिसकियाँ सेनों के शयनागार तक नहीं पहुँच सकती थीं.

        लेकिन दूसरे दिन तो बिलकुल बेढब मामला हो गया. शाम के वक्त खेलता-कूदता खोखा बँगले के अहाते की बगलवाली गली में जा निकला. वहाँ धूल में मदन पड़ोसियों के आवारागर्द छोकरों के साथ लट्टू नचा रहा था. खोखा ने देखा तो उसकी तबीयत मचल गई. हंस कौओं की जमात में शामिल होने के लिए ललक गया. लेकिन आदत से लाचार उसने बड़े रोब के साथ मदन से कहा, “हमको लट्टू दो. हम भी खेलेगा.” दूसरे लड़कों को कोई ख़ास उज्र नहीं थी, वे खोखा को अपनी जमात में ले लेने के फायदों को नजरअंदाज नहीं कर सकते थे. पर उनके अपमानित, प्रताड़ित लीडर मदन को यह बात कब मंजूर हो सकती थी? उसने छूटते ही जवाब दिया –“अबे भाग जा यहाँ से. बड़ा आया है लट्टू खेलनेवाला ! है भी लट्टू तेरे ! जा, अपने बाबा की मोटर पर बैठ.”

       काशू तैश में आ गया. वह इसी उम्र में नौकरों पर, अपनी बहनों पर हाथ चला देता था और क्या मजाल कि उसे कोई कुछ कर दे. उसने आव देखा न ताव, मदन को एक घूँसा रसीद कर दिया.

       चोर-गुंडा-डाकू होने वाला मदन भी कब मानने वाला था ! वह झट काशू पर टूट पड़ा. दूसरे लड़के जरा हटकर इस द्वंद्व युद्ध का मजा लेने लगे. लेकिन यह लड़ाई हड्डी और मांस की, बँगले के पिल्ले और गली के कुत्ते की लड़ाई थी. अहाते में यही लड़ाई हुई रहती, तो काशू शेर हो जाता. वहाँ से तो एक मिनट बाद ही वह रोता हुआ जान लेकर भाग निकला. महल और झोंपड़ीवालों की लड़ाई में अक्सर महलवाले ही जीतते हैं, पर उसी हालत में, जब दूसरे झोंपड़ीवाले उनकी मदद अपने ही खिलाफ करते हैं. लेकिन बच्चों को इतनी अक्ल कहाँ? उन्होंने न तो अपने दुर्दमनीय लीडर की मदद की, न अपने माता-पिता के मालिक के लाड़ले की ही. हाँ, लड़ाई ख़त्म हो जाने पर तुरंत ही सहमते हुए तितर-बितर हो गए.

          मदन घर नहीं लौटा. लेकिन जाता ही कहाँ ? आठ-नौ बजे तक इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा. फिर भूख लगी, तो गली के दरवाजे से आहिस्ता-आहिस्ता घर में घुसा. उसके लिए मार खाना मामूली बात थी. डर था तो यही कि आज मार और दिनों से भी बुरी होगी. लेकिन उपाय ही क्या था ! वह पहले रसोईघर में घुसा. माँ नहीं थी. बगल के सोनेवाले कमरे से बातचीत की आवाज आ रही थी. उसने इत्मीनान के साथ भर-पेट खाना खाया. फिर दरवाजे के पास जाकर अंदर की बातचीत सुनने की कोशिश करने लगा. उसे बड़ा ताज्जुब हुआ…उसके बाबू गरज-तरज नहीं रहे थे ! उसकी अम्मा ने कोई बात पूछी, जिसे वह ठीक से सुन नहीं सका, तो उसके बाबू ने झल्लाकर कहा, “अरे भाई बतलाया तो, साहब ने सिर्फ यही कहा —आज से तुम्हारी कोई ज़रुरत नहीं; कल से मकान छोड़ देना और अपनी तनख्वाह ऑफिस से ले लेना.”….मदन के काम की कोई बात नहीं हो रही थी, उसकी सजा की तजवीज होती रहती, तो सुनने की कोशिश भी करता वह.

         वह दबे पाँव बरामदे में रखे चारपाई की तरफ़ सोने के लिए चला, तो अँधेरे में उसका पैर लोटे से लग गया. लोटे की ठन-ठन की आवाज सुनकर गिरधर बाहर निकल आया. मदन की अम्मा भी उसके साथ थी. मदन चौंककर घूमा और मार खाने की तैयारी में आ छाती को अपने हाथों से बाँधकर खड़ा हो गया. मदन अक्सर अपने पिता के हाथों पिटता था, बहुत पिटने पर रोता भी था, मगर बहादुरी के साथ.

         गिरधर निस्सहाय निष्ठुरता के साथ मदन की ओर बढ़ा. मदन ने अपने दांत भींच लिए. गिरधर मदन के बिलकुल पास आ गया था कि अचानक वह ठिठक गया. उसके चेहरे से नाराजगी का बादल हट गया. उसने लपककर मदन को हाथों से उठा लिया. मदन हक्का-बक्का अपने पिता को देख रहा था. उसे याद नहीं, उसके पिता ने कब उसे इस तरह प्यार किया था, अगर कभी किया था तो गिरधर उसी बेपरवाही, उल्लास और गर्व के साथ बोल उठा, जो किसी के लिए भी नौकरी से निकाले जाने पर ही मुमकिन हो सकता है, ‘शाबाश बेटा’ ! एक तेरा बाप है; और तूने तो, बे, खोखा के दो-दो दांत तोड़ डाले. हा हा हा हा .

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